बुधवार, 3 जून 2009

मीरा और दलित पहचान


मीरा कुमार पंद्रहवीं लोकसभा में स्पीकर की कुर्सी पर बैठकर सांसदों को सदन में सहयोग के लिये निर्देश देती दिखेंगी । पर कांग्रेस और खासकर सोनिया गांधी द्वारा मीरा कुमार के नाम को स्पीकर पद के लिये मंजूरी देने ने कई सवाल खड़े किये हैं । एक बात साफ कर दुं कि सोनिया गांधी का नाम सिर्फ इसलिये नहीं कि क्योंकी वो मीरा कुमार के नाम को मंजूरी देने वाली पार्टी की अध्यक्षा हैं बल्कि इसलिये भी कि मीरा कुमार जब पहली बार आसन संभालने को तैयार थी तो सोनिया गांधी हंसते हुये दोनो हाथों से मेज थपथपाकर कर स्वागत कर रही थीं ।हालांकि मुझे ये नहीं मालूम उस समय सोनिया को अपना कोई राजनैतिक फायदा याद आ रहा था या फिर पहले प्रतिभा पाटिल और अब मीरा कुमार को एक अहम पद दिलाने में मिली कामयाबी की खुशी उनके चेहरे पर झलक रही थी । पर बड़ा सवाल ये है कि क्या मीरा कुमार के स्पीकर बनने के बाद दलित पहचान,संसदिय राजनीति के आसरे एक खास मुकाम तक पहुंच चुकी है । या फिर संसदीय राजनीति की नजर दलित पहचान को एक मुकाम पर पहुंचाने के बहाने वोट बैंक पर टिकी है । अंबेडकर,लोहिया,जगजीवन राम,कर्पूरी ठाकुर,
काशीराम,मायावती,रामविलास पासवान कई ऐसे नाम रहे जिन्होंने दलित आंदोलन या दलित पहचान को ना केवल अपने तरीके से बनाये रखा बल्कि इस पहचान की डोर को मजबूत भी करते रहे । ये तमाम लोग दलितों की ना केवल समाजिक स्वीकार्यत्ता और आर्थिक सुरक्षा पर जोर देते रहे बल्कि संसदीय राजनीति में भी दलित पहचान की डोर मजबूत रहे इसका ख्याल भी रखा । हालांकि रामविलास पासवान और मायावती का ध्यान इस डोर को मजबूत करने के बजाये इसके आसरे संसदीय राजनीति में अपनी पैठ मजबूत करने पर ज्यादा रही । पर अनजाने में ही सही पासवान और माया की मजबूती ने दलितों को कम से कम उनके ताकतवर होने का आभास तो करया ही । ये दलितों के ताकतवर होने का ही परिणाम है कि जब इन्हें लगा कि रोजी-रोटी और काम के लिये लिये पासवान से बेहतर विकल्प नीतीश हैं तो उन्होंने पासवान को खारिज करने में देर ना लगाई । यही बहनजी के राज में भी देखने को मिला । मायावती ये कहती रहीं हैं कि उनकी सत्ता दरअसल दलितों के ताकत की पहचान है । और सचमुच ये दलित के ताकतवर होने की ही पहचान है कि उन्होंने माया के खोखले दावों पर भरोसा नहीं किया । इस बार के लोकसभा चुनाव में यूपी की कुल आरक्षित सीटों में से बीएसपी को आधे से भी कम सीटों पर सफलता मिली है । इसमें कोई दो राय नहीं कि संसदीय राजनीति में दलित मजबूत हुए हैं लेकिन सत्ता,ताकत और अधिकार के बंटवारे में अभी भी कोसों चलना होगा । ये भी सच है कि इस चुनाव से पहले तक वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला नाम नये पहचान के साथ उभरा है ।लेकिन उससे भी बड़ा सवाल ये कि क्या मीरा कुमार के स्पीकर बनने को दलित पहचान को मिले आखिरी मुकाम के रूप में देखा जाए । अभी तो इतना कहा ही जा सकता है कि दलित पहचान की इस डोर और लोकसभा स्पीकर की कुर्सी के बीच अभी भी दूरी बहुत है ।

मंगलवार, 2 जून 2009

समय कुछ करने का

जीत का शोर और हार का विलाप दोनो लगभग थम चुका है । या यूं कहे कि जीत का एक सिरा अब जिम्मेदारी की डोर से जुड़ने लगा है और दूसरी तरफ हार पर आंसू बहाने के बाद कारणों की जांच हो रही है । लेकिन इससे इतर एक बड़ा सवाल अपने जवाब की उम्मीद लगाये बैठा है। क्या ये लोकसभा चुनाव सिर्फ इस मायने अलग रहा कि कई नये ताजे चेहरे अब संसद की गलियारों में घूमेगें,क्या ये चुनाव सिर्फ इसलिये अलग रहा कि जनादेश से साबित हो गया कि नेतृत्व कमजोर हाथों में नहीं या सिर्फ इसलिये अलग रहा कि बिना किसी नीति और एजेडें के जनता सेवा का मौका नहीं देने वाली । या फिर इससे इतर अब भारत की जनता बदलाव देखना चाहती है । ये सवाल इसलिये भी जरूरी है कि इस लोकसभा चुनाव के परिणाम ने कई मिथक को तोड़ा है । जम्मू-कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी के रिजल्ट तो इसी ओर इशारा करते हैं । प्रचार के दौरान कई ताकतें करीब आयी तो कई पुराने साथी अलग हुये । पर जनता ने काम को और काम करने वाले को मौका दिया । कई क्षत्रप मजबूत होकर उभरे तो कई जनता के जनादेश की आंधी में उड़ से गये । नवीन पायनायक को बीजेपी का पुराना साथ छोड़ने पर भी कोई नुकसान नहीं हुआ तो राजेशेखर रेड़्डी भी वापस लौटे । ऐसा नहीं है कि ये बीजेपी का विरोध था बल्कि ये विकास को सर्पोट था । कर्नाटक और छत्तीसगढ़ में बीजेपी को मिली सफलता ये साबित करती है । इस चुनाव में कई पुराने किले भी टूटे । केरल और बंगाल के परिणाम ने साबित कर दिया कि सिस्टम में सुधार और बदलाव की ना केवल बातें होनी चाहिये बल्कि वो दिखना भी चाहिये । नीतीश को बेहतर काम-काज का फायदा मिला । तो दिल्ली को अघोरे लालू और पासवान की जोड़ी को एक बार फिर बिहार लौटना पड़ा । पर ऐसा नहीं है कि बिहार की जनता ने नीतीश को अधिनायक मान लिया है । नीतीश के पूरी ताकत लगाने के बावजूद दिग्विजय सिंह निर्दलीय जीते । यूपी ने भी बताया कि एक बार और पुराने प्रयोग को अपनाया जाये । यूपी में कांग्रेस ने उन सीटों पर जीत दर्ज की जो बीएसपी का गढ़ समझा जाता है ।दलितों की मसीहा कहने वाली मायावती की जमीन कितनी खोखली है कि सूबे की सुरक्षित सीटों पर उनके पांच उम्मीदवार भी जीत नहीं सके।महाराष्ट्र में कांग्रेस के खाते गढ़चिरौली जैसी कई ऐसी सीटें आयी जो उन्होंने दशकों से नहीं जीती थी। इन चुनाव परिणामों में ही एक बड़ा सवाल छुपा है कि क्या जनता ने बदलाव की उम्मीद लगाये जो कमान नये रंगरूटों को सौंपा है क्या वो पूरा हो पायेगा ? ये सवाल इसलिये भी अहम है कि आम जनता की अगर ये उम्मीद टूटती है तो शायद हाशिये पर धकेले गये नेता,नारे,और नीति सब फिर से हावी हो जायेगें । इसलिये अब आमोद और जीत के शोर को खत्म कर पहल की जानी चाहिये । पहल विकास का,पहल बदलाव का,पहल साथ जोड़ने का,पहल भारत को बदलने का । और ये जिम्मेदारी संसद के नैनिहालों और बुजुर्गों दोनो की है । और अगर इसमें चूके तो ना केवल जनमत के साथ धोखा होगा बल्कि अगले बदलाव के लिये शायद लंबा इंतजार करना पड़ जाये ।

सोमवार, 16 मार्च 2009

देह के आसरे प्रेम

अनुराग कश्यप युवा और प्रयोगधर्मी फिल्मकार हैं । अनुराग की नयी फिल्म देव-डी हाल ही में रीलिज हुई है । ये फिल्म ना केवल कई सवाल खड़े करती है बल्कि कई मायनों में आम मसाला फिल्मों से अलग नजर आती है ।
ज्यों-ज्यों फिल्म आगे बढ़ती है या यूं कहें कि जिस तरह पात्र या पात्र की सोच कहानी के हिसाब से बदलती है वैसे-वैसे ही सवाल ना केवल बड़े होते जाते हैं बल्कि कहानी इन सवालों को सत्यापित भी करती जाती है ।
इस फिल्म की शुरूआत में एक बड़ा सवाल खड़ा होता है कि क्या प्रेम को देह के ही आसरे आगे ले जाया जा सकता है या फिर प्रेम के संबंधों में देह बड़ी अहम भुमिका निभाता है ।

अनुराग यहीं नहीं रूकते , सदियों से सेक्स के पुरूषवादी चेहरे से उलट वो स्त्रीयों के मन की इच्छा भी इस फिल्म में बड़े बेबाकी से कहते हैं । ये फिल्म , आदमी की , औरत के सिर्फ उसकी होकर रहने की इच्छा और अंतरंग संबंधों पर शक के हावी होने की कहानी भी कहती है ।
हो सकता है अनुराग को इस फिल्म का प्लॉट समाज में घटी अलग-अलग घटनाओं से मिली है पर बड़ा सवाल ये है कि , क्या अनुराग जो कुछ इस कहानी के जरिये कह रहे हैं वो सब कुछ इस समाज में चल रहा है या फिर ये एक प्रयोगधर्मी निर्देशक का एक और सिनेमाई प्रयोग भर है ।
बड़ा सवाल ये है कि क्या सचमुच आज का युवा प्यार , देह की गंध में इतना हिल-मिल गया है कि इस गंध से इतर उनके लिये प्यार में रूमानियत बाकी ही नहीं रह जाता है ।
अनुराग , एक रईस नायक , उसके प्यार में पागल एक लड़की और मजबूरी में मिली जिंदगी को जीने को विवश एक युवती के जरीये समाज के उस सच को कहते हैं जिसे बहुत आसानी से स्वीकार नहीं किया जा सकता है ।
इसलिए ये जानना जरूरी है कि, फिल्म की नायिका पारो के जरिये अनुराग जो कुछ कहलवा रहे हैं क्या ये डोर सचमुच महिलाओं की एक बड़ी तादाद को अपने घेरें में लेती है । या फिर अनुराग , चंद पश्चिम प्रेमी महिलाओं की इच्छाओं को पंजाब के मिट्टी के जरिये बयां कर रहे हैं । एक बड़ा सवाल ये भी है कि क्यों पुरूष तमाम आधुनिकता का चोला पहनने के बावजुद आज भी प्यार में हिस्सेदारी को लेकर तैयार नहीं है और वो भी तब जब वो खुद एक संबंधों को जीते हुये उसे किसी दुसरे संबंध से भी गुरेज नहीं है । और शायद तभी ये सवाल वाजिब लगता है कि क्या आज भी प्रेम को जीने या संबंधों को दूर तक ले जाने के लिये पुरूषों और स्त्रियों की जिम्मेदारी की परीभाषा अलग-अलग है ।
फिल्म के दुसरे भाग में सहनायिका चंदा की जुबानी अनुराग शराब और सिगरेट के नशीले माहौल में गंभीर बात कह जाते हैं । चंदा कहती हैं कि ‘अगर उसके पिता ने आत्महत्या ना की होती तो शायद वो आज यहां ना होती “ ।
सवाल बड़ा है कि नादानी या फिर अनजाने रोमांच को जीने के दौरान हुई गलती को समाज जिस तरह से देखता है क्या वो उचित है । या फिर इस तरह की गलती की जड़ में बदलते और टूटते पारिवारीक मूल्यों का भी हाथ है ।
आम तौर पर सिनेमा की कहानी किसी सोच या घटना के आसरे गढ़ी जाती है और कल्पना के ताने-बाने में लपेट कर उसके अंजाम तक पहुंचायी जाती है । पर देव-डी कई अलग-अलग मुद्दों पर ना केवल युवा सोच को बताती है बल्कि बहस का एक सिरा खुला भी छोड़ जाती है ।

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

बापू की याद

मौसम कुछ बदल रहा है
कांटों की छोड़ो
अब तो फूल चुभ रहा है ।
रंग बिरंगे नजारे हैं
फिर भी,ना जाने क्यों
दिल रो रहा है।
आंखों में हसीन सपने
फिर भी,ना जाने क्यों
डर सा लग रहा है।
दिल्ली,मुंबई,पुणे की
नियोन लाइट में
ना जाने क्यों
यवतमाल दिख रहा है।
पांचसितारा होटलों की
टेबलों पर
सूखी रोटी और प्याज
दिख रहा है।
प्यालों में तो शराब
पर गले में ना जाने क्यों
लहू उतर रहा है

आजादी को 61 साल हो गए
पर ना जाने क्यों
आज भी,हर इंसान
गुलाम दिख रहा है।
कूर्सी के पास
भीड़ बहुत है
लेकिन,आज भी बापू खूब याद आ रहा है ।

शुक्रवार, 6 जून 2008

नायक का पोस्टर ब्वॉय हो जाना

भारतीय लोक संस्कृति और गीत-संगीत एक ही नदी के दो किनारे है ।समाज जब-जब जैसे बदला गीत और संगीत की धारा भी उसके अनुसार बदली ।जहां समाज के दर्द,औऱ मजबूरी को गीतों में संजीदगी के साथ उकेरा गया वहीं गीतों के माध्यम से लोंगो के ख्वाब और खूशियों के कई अफसाने लिखे गये । हर काल और समय में समाज ने जिस दौर को भी जिया गीत,संगीत के आसरे उस कहानी को कहता रहा ।पहले लोक गीत और शास्त्रीय संगीत ने खुद को लोगो का अक्स बनाया ।बाद में इसकी ताकत को सेल्युलाइड ने ना केवल पहचाना बल्कि इस विधा का उपयोग भी किया ।ये गीत और समाज के मजबूत रिश्ते ही थे कि गाने ,सिनेमा में अब फिलर के तौर पर नहीं बल्कि इसके आसरे कहानी को नया मोड़ दिया जाने लगा । अब सिनेमा के जरिये सिर्फ गानों को नहीं बल्कि गीतों के जरीये भी रूपहले पर्दे को पहचान मिलने लगी ।जब ये दोतरफा संबंध और मजबूत हुआ,तब सिनेमा संगीत के धुन पर सजे बेहतरीन शब्दों के बूते चौपाल से आगे निकलकर लोगों के बरामदों और आंगन में जगह बनाने कामयाब में हो गया ।और तब इन गीतों को आवाज देने वाले गायकों को भी नायक के तौर पर पहचान मिलने लगी ।रूपहले पर्दे पर जहां मुकेश,रफी,लता,मन्ना डे सरीखे गायक सिनेमा और समाज के बीच पुल की तरह काम कर रहे थे वहीं इससे इतर मौशिकी और मौशिकीकारों की एक दुसरी दुनीया भी अपने तरीके से इस रिश्ते को और मजबूत कर रही थी ।बेगम अख्तर,शमशाद बेगम,बड़े गुलाम अली,मेंहदी हसन कुछ ऐसे नाम रहे जिन्होंने अपने आवाज के जरिये गीतों के इस सुनहरे फलसफे का रूहानी चेहरा दिखाया ।इन्होंने गीत के जरिये लोगो को खुदा से जोड़ा ।गीत इनके लिए हर दौर में खुदा की इबादत रही ।समाज के साथ गीत संगीत ने भी एक लम्बा अर्सा बिताया ।समय के साथ समाज में होने बदलाव को गीतों ने पहचाना और अपने को उसके अनुसार बदला भी ।कुछ बाजार की ताकत और कुछ ढलती उम्र के कारण भी गीतों के इन पुरोधाओं ने नौसिखये लेकिन जोश से लबरेज युवाओं के हाथों में अपनी विरासत सौंपी ।लेकिन अब दौर दुसरा था गाने,आवाज और संगीत से ज्यादा बाजार के आसरे रहने लगा है ।अभिजीत सावंत,हिमेश रेशमिया नायक नहीं बल्कि पोस्टर ब्वाय के तौर पर उभरे ।इनकी आवाज ऑटो से लेकर डिस्कोथेक तक गुंजने लगी है ।लेकिन डिस्कोथेक में नशे में चूर युवाओं के शोर में मध्यम वर्ग का वो नायक ना जाने कहां खो गया है। न जाने क्यों विरासत की डोर टूटती हुई महसुस होती है । लेकिन ऐसे समय में एक बार फिर राजन-साजन मिश्र,छन्नु लाल,अमजद अली खान,लता मंगेशकर जैसे बुढ़े कंधे ही सहारा देते नजर आते हैं ।ऐसे में एक सवाल बारबार कौंधता है कि क्या ये पोस्टर ब्वॉय उस नायक की जगह ले पायेगें ।

गुरुवार, 22 मई 2008

यूपीए में सोनिया के चार साल


यूपीए सरकार के चार साल पूरे हो गये ।इन चार सालों में सोनिया गांधी का कद न केवल बढ़ा है बल्कि घटक दलों में उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ी है ।
सोनिया इस दौरान न केवल काग्रेंस अध्यक्षा बल्कि सरकार के संकटमोचक के रूप में भी दिखाई दीं ।जब पार्टी और आम जनता के हितों की बात आई तो सीधे प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी । सरकार जब तेल की कीमतों में बढ़ोतरी को सोच रही थी उस समय ने सोनिया ने सरकार तक पार्टी और आम जनता दोनो की मांग पहुंचाई ।लेकिन जब विरोधियों ने सरकार और मनमोहन सिंह पर निशाना साधा तो उसका माकूल जवाब भी दिया । परमाणु करार के मसले पर जब वाम दलों के साथ-साथ पार्टी के अंदर भी विरोध के सुर सुनाई देने लगे तो वैसे समय में सोनिया मनमोहन सिंह के साथ खड़ी दिखांई दीं ।
सरकार के इन चार सालों में मनमोहन सिंह को विपक्ष के अलावा घर के सदस्यों का भी विरोध झेलना पड़ा ।और ऐसे समय में सोनिया ने साफ किया कि मनमोहन सिंह सरकार के मुखिया हैं और वो उनके हर फैसले में साथ हैं ।
इन चार सालों में कई बार ये सवाल भी उठा कि 7 रेस कोर्स रोड और 10 जनपद में आखिरकार सरकार की कमान किनके हाथ है ।पर हर मौके पर सोनिया ने प्रधानमंत्री और उस कुर्सी की महत्ता को स्थापित करने का काम किया ।
अभी हाल में जब अर्जुन सिंह ने राहुल को प्रधानमंत्री पद के लायक बताया तब एक बार फिर ये लगने लगा कि यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री हाशिए पर खड़े हैं लेकिन तब सोनिया ने न केवल इसे खारिज किया बल्कि पार्टी के अंदर साफ संदेश भी दिया की वो ऐसे किसी बहस को नहीं चाहती ।
मौजुदा अवसरवादी राजनीति के साथ-साथ ये सोनिया के नेतृत्व का भी कमाल था कि शरद पवार जैसे क्षत्रप जो कांग्रेस छोड़ कर गये थे आखिरकार यूपीए के झंडे के नीचे आ खड़े हुए। ये सेनिया का ही नेतृत्व था कि लालू और रामविलास जैसे नेता जो एक दुसरे के विरोधी हैं एक साथ सरकार में शामिल हुए।
लाभ के पद के आरोपों से घिरी सोनिया ने लोकसभा से इस्तीफा देकर फिर संसद पहुंची । ।सोनिया ने नैतिकता के बहाने ही सही लेकिन राजनैतिक विरोधियों को एक बार फिर पटखनी दी ।
जब पार्टी में युवाओं को मौका दिये जाने की बात चल रही थी तो लगा कहानी राहुल गांधी के आसरे ही घुमेगी लेकिन अध्यक्ष का फैसला , मां की ममता पर भारी पड़ा ।और राहुल को सीधे कुर्सी मिलने के बजाय लोगों के दिलों में जगह बनाने के लिए गांव की गलियों में उतरना पड़ा ।
ये चार साल न केवल यूपीए सरकार के हैं बल्कि सोनिया गांधी के नेतृत्व और राजनितीक कौशल के भी चार साल हैं ।जो सरकार के साथ रहते हुए भी आम जनता के लिए सरकार के विरोध में खड़ी दिखाई देती है

शनिवार, 17 मई 2008

हौसलों को सलाम


आज बात एक ऐसे इंसान की जिसके हौसले,जिसके जुनून लोगों को प्रेरणा देते हैं ।ये कहानी है दक्षिण अफ्रीका के एथलीट ऑस्कर पिस्टोरियस की ।बचपन से विकलांग पिस्टोरियस को 2007 के बेइजिंग ओलंपीक में दौड़ के लिए होने वाले क्वालीपाइंग मुकाबले में हिस्सा लेने के लिए अनुमति मिल गई है।
बिजिंग ओलंपिक के रेस में अगर एक विकलांग,बाकी दूसरे ऐथलीटों को चुनौती देता नजर आये तो चौंकियेगा नहीं । एथलीटों की दुनीया के इस नये सनसनी का नाम है ऑस्कर पिस्टोरियस ।
विकलांग वर्ग में अलग अलग मुकाबले में इनके नाम 100 मीटर,200 मीटर,400 मीटर,के विश्व रिकार्ड दर्ज हैं ।पर सब कुछ इतना आसान नहीं था ।तीन साल पहले तक पिस्टोरियस ने रेस ट्रैक पर कदम तक नहीं रखा था ।संघर्ष, ट्रैक पर सिर्फ एक खास कैटेगरी में कुछ तमगों को अपने नाम करने तक हीं नहीं था ।लड़ाई उससे कहीं बड़ी थी ।लड़ाई उस सोच से थी जो ये आभास दिलाती है कि अपंग होने के बाद ओलंपिक तो दुर कोई भी दौड़ बस एक ख्वाब की मानिंद है ।
पिस्टोरियस ने कृत्तिम पैरों के सहरे चलना सीखा और इसी के सहारे खेलों में अपनी साख भी बनायी ।इतिहास तो रचा लेकिन इसने विवाद भी खड़ा कर दिया ।
पिस्टोरियस ने मैदान के अंदर और बाहर दोनो तरफ लड़ाई लड़ी ।मैदान के अंदर जहां अपने जुनून से कुदरत की कमी को हराया वहीं मैदान के बाहर उन लोगों को हराया जिन्होंने इस ऐथलीट के अपंग होने के कारण उसके कृत्तिम पैरों पर ही सवाल खड़े कर दिए । कहा गया ये कृत्तिम पैर पिस्टोरियस को दुसरे ऐथलीटों के मुकाबले बढ़त दिलाते हैं ।
IAAF ने जून 2007 में अपने नियमों में किसी भी ऐथलीट के तकनीकी उपकरण के उपयोग पर रोक लगा दी ।जुलाई 2007 में रोम के 400 मीटर के मुकाबले को 46.60 सेरेंण्ड में पूरी कर पिस्टोरियस ने दूसरा स्थान हासिल किया,जबकि जीतने वाले ने इस दौड़ को 46.72 सेकेण्ड में पूरी । पर पिस्टोरियस की इस उड़ान पर सवाल उठने लगे ।
IAAF ने इस जाबांज के ट्रैक परर्फामेंस का हाई मोनिटेरिंग कैमरे की मदद से जायजा लिया । फिर शुरू हुआ जांच दर जांच का सिलसीला ।और 14 जनवरी 2008 को IAAF ने पिस्टोरियस को अपने मताहत आयोजित होने वाले तमाम प्रतियोगीताओं के लिए अयोग्य करार दे दिया ।
पिस्टोरियस के लिए ये कुछ ऐसा ही था कि मानो आंखों में पल रहे ख्वाब ने जवां होने को सोचा ही था कि रात का आखिरी पहर बीत गया ।पर शायद बुलंद इरादों की तासीर ही ऐसी होती है कि वो इतनी जल्दी हार नहीं मानता ।वो सपनों को मरने नहीं देता ।
तब पिस्टोरियस ने अप्रैल 2008 में स्विटजरलैंड के लुसान के खेल मामलों की अदालत में अपील की ।
और शुक्रवार को अदालत ने उस हौसले,उस जुनून का सम्मान रखा और पिस्टोरियस को क्लिन चीट दी । IAAF ने आखिरकार अपनी गलती मानी कहा कि पिस्टोरियस क्वालिफांइग मुकाबले में दौड़ सकता है ।
मुमकिन है कि पिस्टोरियस ओलंपीक ना जीत पाये पर उसके बुलंद इरादों की अब तक की कहानी इस मायने में खास है कि ये हौसला देता है तमाम चुनौतियों से लड़ने की,ये हौसला देता है सपनों को हकीकत में बदलने की,ये हौसला देता है जिंदगी को अपने तरीके से जीने की ।